Thursday, October 8, 2009

आरजू


दिन, महीने, साल
यु ही गुजरते चले गए
और मैं, देखती रह गई
अपने साथ साथ हजारो रंग
हजारो सपने बिखेरते रहे
और मैं, एक भी सपने का रंग न बटोर पाई
वक्त का कठोर पहिया किसी के लिए
न कभी रुका था, न कभी रुका है
और मैं, समय की रफ़्तार पकड़ने की कोशिश करती रही
सावन, बरखा, मेघ, सतरंगी
सब आते रहे, जाते रहे
और मैं, बुत बनी देखती रही
ज़िन्दगी अपने रंगमंच पर जाने कितने
किरदार निभाती रही
और मैं, ख़ुद के अस्तित्व के धागों को बुनती रही
सफर तो जहा से शुरू किया था
आज वही आकर ख़तम हो गया
और मैं, मंजिल का ठिकाना ढूँढती रही...

14 comments:

vandana gupta said...

wah.......behtreen ........kuch aarzoo aisi hi rah jati hain aur hum kuch bhi nhi samet pate hain.

मनोज भारती said...

आरजू का दस्तूर यही है
कि चलाती बहुत है पर
पहुँचाती कही नहीं ।

सुंदर

आप बूंद-बूंद इतिहास में आई और टिप्पणी छोड़ी .धन्यवाद ।
कृपया मेरी कविताओं और अन्य रचनाओं के लिए देखें :

http://gunjanugunj.com

रानी पात्रिक said...

पहले तो आपको मेरे ब्लाग पर आते रहने के लिए धन्यवाद देना चाहूंगी। बहुत उत्साह मिलता है।
स्त्री का जीवन ऐसा ही है। बहुत सी ज़िम्मेदारियों में अनेक चीज़े छूटी सी लगती हैं। ऐसी मनःस्थिति से शायद हम सब गुज़रते रहते हैं। पर हर चीज़ का समय आता है।

लता 'हया' said...

shukria .

manzilon ki kashish kinch legi tumhe,
pattharon,thokaron se na ghabraiye.

Dr. Tripat Mehta said...

bahut sahi kaha aapne Rani ji...
kuch hi shabdon bahut badi baat keh daali..

जोगी said...

वक्त का कठोर पहिया किसी के लिए
न कभी रुका था, न कभी रुका है

waah waah !! great lines :)

Prem Farukhabadi said...

bahut sahi kaha aapne .badhai!!

Dr. Amarjeet Kaunke said...

bahut khubsurat kavita

अजय कुमार said...

'aur main manjil ka thikana dhundhati rahi'
kya baat hai

Pawan Kumar said...

मैं, ख़ुद के अस्तित्व के धागों को बुनती रही
सफर तो जहा से शुरू किया था
आज वही आकर ख़तम हो गया
और मैं, मंजिल का ठिकाना ढूँढती रही...
बेहतरीन रचना...........................बधाई.

हरकीरत ' हीर' said...

सावन, बरखा, मेघ, सतरंगी
सब आते रहे, जाते रहे
और मैं, बुत बनी देखती रही
ज़िन्दगी अपने रंगमंच पर जाने कितने
किरदार निभाती रही

दिल के ज़ज्बातों को व्यक्त करती एक सच्ची रचना .....शुक्रिया....!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ऐसा इसलिए होता है कि अन्त तक मंज़िल क्या हैं यही पता नहीं होता
जिसने मंज़िल जान लिया उसे सत्य का ग्यान हो गया
जिसे सत्य का ग्यान हो गया वह भगवान हो गया
रचना चिंतन के लिए बाध्य करती है।

Anonymous said...

ज़िन्दगी अपने रंगमंच पर जाने कितने
किरदार निभाती रही
और मैं, ख़ुद के अस्तित्व के धागों को बुनती रही

लता जी ने कहा:
manzilon ki kashish kinch legi tumhe,
pattharon,thokaron se na ghabraiye.
एवं Harkirat Haqeer जी ने:
दिल के ज़ज्बातों को व्यक्त करती एक सच्ची रचना.
आगे लिखने का साहस करना मेरी जुर्रत होगी. आभार.

ज्योति सिंह said...

और मैं, ख़ुद के अस्तित्व के धागों को बुनती रही
सफर तो जहा से शुरू किया था
आज वही आकर ख़तम हो गया
और मैं, मंजिल का ठिकाना ढूँढती रही...
dilchasp blog hai hame bahut bhaya dost ,kya likha hai man ko bha gaya .

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