Thursday, October 5, 2023

नजाने क्यों

 नजाने क्यों, सब को सब कुछ पाने की होड़ लगी है

नजाने क्यों, सब को सबसे आगे निकलने की होड़ लगी है

जो मिल गया है, उसको अनदेखा कर दिया है

और जो नहीं मिला है, उसको जीत जाने की होड़ लगी है

अपने हिस्से के आसमान को भुला दिया है 

और दूसरे की फलक को छीनने की होड़ लगी है

ख़ुद के कर्मों से बहुत कुछ बहुत सुंदर पा लिया है 

लेकिन फिर भी गैर के आगोश में समां जाने की होड़ लगी है 

नजाने क्यों...


डॉ त्रिपत मेहता 

निरन्तर प्रवाह

वो सरिता जो बह निकली है

विशाल पर्वत का सीना चीर कर

कल कल करती, जगह जगह कौतुहल करती

नाचती, गाती, गिरती, संभलती, 

नजाने क्या-क्या शरारतें करती

कहीं पूरे वेग से हल्ला मचाती हुई

राह में सब कुछ अपने साथ बहा कर ले जाती हुई

तो कहीं समुंद्र की गहराई की तरह एकदम शान्त

जन मानस की प्यास को बुझाती हुई

अपने अलग-अलग रूप को खुद स्वीकारती हुई

राह में आने वाली सारी बाधाओं स्वयं ही दूर करती हुई

बहती चली जा रही है

बिना किसी की परवाह किए

बिना किसी की राह देखे

बस अपनी धुन में

अपना गीत गुनगुनाते हुए

चलती चली जा रही है

बिना रुके, बिना डरे, बिना थके

अपने पी से मिलने

सदा सर्वदा के लिए

उसके साथ एक होने 

क्योंकि मिलन का आनंद तो सर्वोपरी है 

केवल तटिनी ही महसूस कर सकती है

मिलन के उस क्षण में जन्मे

आमोद को, तृप्ति को, संपूर्णता के भाव को


डॉ त्रिपत मेहता 

Tuesday, October 3, 2023

निजी फैसला

 सातों जहान क़दमों में होते हैं 

उस पल, जब हम तुम संग होते हैं 

 बंधन में चाहे हमें संसार ने बाँधा हो 

लेकिन एक दूसरे के सांचे में ढल कर, 

थोड़ा गिर कर, कुछ संभल कर 

एक दूसरे का ना केवल हमसफ़र 

बल्कि, हमकदम, हमजोली, हमसाया बनकर 

हाथों में हाथ डाल , साथ जीवन व्यतीत करने 

का निश्चय और वादा तो हमारा अपना है 


- डॉ त्रिपत मेहता 



नौंक झोंक

वो तुम ही हो न जो 

बात बात पर मुझसे लड़ते हो 

और फिर मुझे गलत ठहराकर 

खुद ही क्षमा भी मांग लेते हो। 


 वो तुम ही हो न जो 

मेरी छोटी-छोटी शरारतों का मज़ा भी लेते हो 

और फिर उतनी ही जल्दी 

चिढ़ भी जाते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो बात-बात पर असहमति दिखाते हो  

और फिर अंत में मेरी ही बात को 

मान भी लेते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो मेरे, तुम्हें बार-बार फ़ोन करने पर भड़क जाते हो 

और फिर फूलों का गुलदस्ता देकर 

प्रेम से मना भी लेते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो मुझे आराम देने के लिए स्वादिष्ट पकवान पकाते हो 

और फिर रसोईघर में मचाए गंद को साफ़ करने के लिए 

 मुझे ही बुलाते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो मुझे तंग करने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ते हो 

और फिर खुद ही भले बनकर 

मान मनुहार भी कर लेते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हो 

और फिर मेरी सुरक्षा के लिए 

चिंतित भी रहते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

मेरे किसी गंभीर कथन पर अचानक से ठहाका लगा देते हो 

और फिर उतनी ही परिपक़्वता से 

मामले को सुलझा भी देते हो। 


 वो तुम ही हो न जो

जो कभी कभी मुझसे खफा हो जाते हो 

और फिर मेरे थोड़ा सा मनाने पर 

झट से मान भी जाते हो। 


 हाँ प्रियवर वो तुम ही हो जो

 मेरे हम कदम हो 

आदि से अनंत काल तक 

सदा सर्वदा से मुझमें हो 

Thursday, September 21, 2023

फ़र्ज़ी रिश्ते

शुक्रिया हर उस शख़्स का  

जिसने पुरज़ोर कोशिश की 

मेरी हिम्मत तोड़ने की 

मुझे पीछे खींचकर गिराने की 


सच अगर उस दिन तुम न होते 

तो आज मैं  यहाँ ना  होती 

अपने सपने को साक्षात् ना  जी पा रही होती 


तुम तो किसी फ़रिश्ते से काम न निकले 

तुमने तो मुझसे "मैं " को मिलवा दिया 

चाहा तो था तुमने मेरे पँखों को काटना  

लेकिन मेरे ख़ुदा को ये गवारा  न था 

तुम्हारे हाथों  में  तलवार की बजाए 

मेरे लिए ऊपर उठने की सीढ़ी दे दी 

जिसकी तुम्हें भी शायद खबर न थी 

और मैं कदम दर कदम 

सीढ़ी दर सीढ़ी 

चढ़ती चली गई 

और अपने  स्वाभिमान की 

आन  बान  और शान को पहचानती गई 


तू है क्या    तू है क्या 


तुम्हारे मुख से निकली इस ध्वनि ने 

मानो मुझे नींद से जगा  दिया 

और सच में याद दिला दिया 

कि आख़िर मैं हूँ क्या 


 सच नमन तुम्हें दिल से 

तुम्हारी चरपरी ज़ुबाँ की बदौलत 

आज वो पा लिया और जी लिया 

जिसकी सदा से केवल कल्पना की थी 

जिसकी सदा से केवल तमन्ना की थी 


दिल से आभार, अभिनन्दन, अभिवादन  तुम्हारा 

मोती जो छिपा था सीप में गहरे कहीं 

तुमने न केवल उसे बहार निकला 

बल्कि चमका भी दिया 


बहुत बहुत मेहरबानी तुम्हारी 

जो कुटिल हुई वाणी तुम्हारी 

तुम्हारे इसी छल  ने मेरे अंदर 

उस ऊंघाई सी चिंगारी को सुलगा दिया 

और भयंकर बवंडर में बदल दिया 


अन्जाने में ही सही 

माँ शारदे के आशिर्वाद से 

मेरा अंतर्मन झंझोड़ दिया 

मेरी कलम को सक्रिय कर दिया 

मुझे मेरे ध्येय से मिलवा दिया 


प्रणिपात प्रणिपात  प्रणिपात 


डॉ  त्रिपत मेहता 

ग़ज़ल

हाँ मैंने देखा है 

मदमस्त रौशनी की एक सूक्ष्म सी किरण को 

हर ओर फैले स्याह अन्धकार को मिटाते हुए 

मैंने  देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

सदियों से बंदिशों की क़ैद से छूटे हुए उस पंछी को 

विशाल अनंत आकाश में पंख फैलाये उड़ते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

उपवन में खिलखिलाते रंग बिरंगे पुष्पों को 

बंजर ज़मीन का सीना चीर कर अस्तित्व में आते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

सुकून और स्नेह की सुन्दर मशाल से फैले उजाले को 

संताप, दुःख और वेदना की कालिमा को मिटाते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

स्वयं के साथ हुए हर उस अपमान और तिरस्कार को 

परमात्मा के नेक-दिली से आशीर्वाद में बदलते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

पहाड़ों से शोरगुल करती कौतुहल करती सरिता को 

अनगिनत पाषाणशिलाओं में विशाल कटाव करते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

मेरे बच्चे के चेहरे पर नाचती हुई उस अनमोल ख़ुशी को 

मुझे आगे बढ़ता, बनता, संवारता और तरक़्क़ी कर देखते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

मेरे हमसफ़र की नज़रों में नितप्रति मेरे लिए बढ़ते सम्मान को 

मुझे अपना सपना अपनी शर्तों पर जीता देखते हुए 

मैंने देखा है 


हाँ मैंने देखा है 

मेरे कोमल हृदयी, अविकारी, निर्वैर  मुर्शिद की रहमतों को 

जन मानस का मुकद्दर संवारते हुए उनका कल्याण करते हुए 

मैंने देखा है 



डॉ त्रिपत मेहता 


Friday, September 15, 2023

क्या मैं आज़ाद हूँ

व्यथित हूँ , व्याकुल हूँ मैं 
कहीं गहरे अंतस में सुलग़ रहे 
बवंडर में लुप्त हूँ मैं 

जाने कैसी जवाबदेही के बेड़ियों में 
कैदियों की तरह जकड़ी हुई हूँ मैं 

जाने कैसा अविज्ञात बोझ अपने सीने पर 
हाँकती हुई, बस मूक बैठी हूँ मैं 

जाने क्यों अपनी अनगिनत अपेक्षाओं का नितप्रति 
प्रमुदित हो, कण्ठ घोंट रही हूँ मैं 

नजाने कब तक ऐसा ही चलेगा ये सिलसिला 

अपने अन्तर्मन में उठ रही इच्छाओं , अभिलाषाओं , प्रेरणाओं  को 
जाने कब तक पंख न दे पाऊँगी मैं 
जाने कब तक खुल के ना  जी पाऊँगी मैं 
जाने कब तक न उड़ पाऊँगी  मैं 

या फिर कहीं  ऐसा तो नहीं 

ये बेड़ियाँ , या बंदिशें, ये  क़ैद  
मैंने स्वयं  ही चुनी हों , खुद के लिए 
शायद मैंने ही "मैं " को "मैं " से जकड़ रखा हो  

और यदि ये सच है तो 

इस बेनाम, बेमतलब, बन्धन से, इस भार से 
मुझे स्वयं को मुक्त करना होगा 
मुझे स्वयं ही अपने पंखों से उड़ना सीखना होगा 
मुझे स्वयं ही "मैं" को "मैं" की जकड़न से आज़ाद करना होगा 
मुझे स्वयं ही, अपनी ही बनाए कारागृह  को 
अग्नि के सुपुर्द करना होगा 

खुद से वचबद्ध होना होगा 
की अब न कोई बंधन, न बाधा , न बेड़िया मेरे लिए  हैं 
अब यदि कुछ है तो 
नीले गगन में उड़ती हुई आज़ाद सिर्फ "मैं" 
मेरा अस्तित्व  और  मेरा स्वाभिमान है 



- डॉ त्रिपत मेहता 

नजाने क्यों

 नजाने क्यों, सब को सब कुछ पाने की होड़ लगी है नजाने क्यों, सब को सबसे आगे निकलने की होड़ लगी है जो मिल गया है, उसको अनदेखा कर दिया है और जो...