क्या कारण है की आजादी के बासठ सालों के बाद आज भी भारत वर्ष की गिनती उन्नत देशो में न हों कर उन्नतिशील देशो में की जाती है? क्यों आज भी एक आम आदमी को उसके अधिकारों से जानभूझ कर वंचित रखा जाता है? क्यों एक साधारण व्यक्ति अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करना ही नहीं चाहता? क्यों कोई अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ उठाना ही नहीं चाहता? क्यों आज भी दिन हो या रात, एक लड़की सड़क पर अकेली जाने से कतराती है? क्यों यहाँ के नागरिक खुद को सुरक्षित नहीं समझते? क्यों एक साधारण, मजबूर, गरीब आवाज को सियासत के भौंपू के आवाज के तले, उसे उठने से पहले ही दबा दिया जाता है? आज कहाँ गई उनकी इंसानियत या उनकी जिम्मेवारी जिन्होंने एक सुन्दर, विशाल, उन्नत समाज का निर्माण करने की शपथ ग्रहण की थी? क्यों आज का समाज अपने कर्तव्यों के प्रति अपना उत्तर्दायितव नहीं समझता, या सरल शब्दों में कहूँ की समझना नहीं चाहता? क्यों इस देश का ८०% न्याय भी अन्याय है? क्यों आज रह चलते किसी भी मुसाफिर से चाक़ू की नोंक पर उस से सब कुछ सरेआम छीन लिया जाता है और बदले में प्रशासन और स्वयं समाज हाथों में चूडिया डाल कर सहायता करने की बजाये तमाशा देखते रहेते है? क्यों एक बेक़सूर को कसूरवार न होते हुए भी बड़ी ही निर्ममता से कठौर सजा सुना दी जाती है, और उसे एक बार भी अपनी सफाई पेश करने का मौका नहीं दिया जाता? फिर क्यों हज़ारो किताबें लिख डाली है न्याय की, यदि कोई उसे पड़ना नहीं चाहता, और जो पड़ना चाहता है उसे उसका इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता? क्यों दीमक की तरह चिपक गया है ये अपराध देश को और धीरे धीरे खोखला किये जा रहा है इसे? क्यों कोई सचाई की तरफ कदम नहीं बढाना चाहता? क्यों आज अन्याय की इमारत इतनी ऊँची और मजबूत हो गई है की न्याय को वहा पहुँचने से पहले ही दबोच लिया जाता है? मदद, परोपकार, अनुशासन, विश्वास; जैसे शब्दों का तो कोई मूल्य नहीं रह गया है आज. चीथड़े उड़ा दिए गए है इस शब्दों के मायनो के. आज हर गली मोहल्ले में सब्जी तरकारी के भाव बिकतें है लोगो के ज़मीर और ख़ुशी ख़ुशी बिकतें है. सच में पट्टी बंधी है न्याय की मूर्ती पर, और इतनी ज़ोर से बंधी है की यदि कोई इसे खोलना भी चाहे तो हाथ काट दिए जाते है. सच की आवाज को गूंजने से पहले ही उसका गला दबा कर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है.
कौन करेगा उन्नति, कौन बनाएगा नए और सुन्दर रास्ते, कौन करेगा सहायता; जब रक्षक ही सबसे बड़ा भक्षक बन चुका है?
Monday, December 28, 2009
Wednesday, December 2, 2009
Dreams
When the whole world sleeps,
At the midnight air whispers in my ear.
A beautiful ball of white light in the sky,
Throws its charming rays into my eyes.
I usually try to see a glimpse of yours,
Into the mirror or in shadow of mine.
My twin eyes pretend to see you,
I am always blue without you.
I can feel and smell your senses,
As my soul is one with you.
And on all the occasions,
I want to be with you.
I Love You!
At the midnight air whispers in my ear.
A beautiful ball of white light in the sky,
Throws its charming rays into my eyes.
I usually try to see a glimpse of yours,
Into the mirror or in shadow of mine.
My twin eyes pretend to see you,
I am always blue without you.
I can feel and smell your senses,
As my soul is one with you.
And on all the occasions,
I want to be with you.
I Love You!
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