Saturday, June 26, 2010

ग़ज़ल

चले आए हैं तेरे दर पे कि
आज जाने कि जल्दी नहीं

किसी कि नजरों का इंतज़ार बनें कि
आज हमारे घर कोई नहीं

हैं भटक राहों में दर बदर रहें कि
आज मयखाने में प्यास बुझती नहीं

हो गया है याराना अन्धकार से कि
आज दिल-ऐ-चिराग ले रोशनी होती नहीं

अलफ़ाज़ बेकरार हैं होने को नज़म तरस के कि
आज सुरों कि बरसात होती नहीं

झुलस उठा है अंतर्मन ऐ "तृप्त" कि
आज बरखा भी दामन भिगोती नहीं


नजाने क्यों

 नजाने क्यों, सब को सब कुछ पाने की होड़ लगी है नजाने क्यों, सब को सबसे आगे निकलने की होड़ लगी है जो मिल गया है, उसको अनदेखा कर दिया है और जो...