आज क्यों बदली बदली सी है
वही राहे...
जो कभी अपनी हुआ करती थी
लगाव तो आज भी उतना ही है
फिर क्यों अपनी हो कर भी डगर अनजानी सी लगती है
आज वही मेघ छाए है गगन में
फिर क्यों बरखा का पानी बेगाना सा लगता है
वही मौसम, वही रुत, वही आलम है
फिर क्यों आज सच भी अफसाना सा लगता है
खुशिया आज भी बाहे फैलाए स्वागत कर रही है
फिर क्यों इक अनजाना सा भय खाए चला जा रहा है
या कुछ नही...ये डगर है उस तक पहुँचने की
शायद इसी लिए राह की हर सीडी परीक्षा बनती चली जा रही है...
Wednesday, August 5, 2009
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नजाने क्यों
नजाने क्यों, सब को सब कुछ पाने की होड़ लगी है नजाने क्यों, सब को सबसे आगे निकलने की होड़ लगी है जो मिल गया है, उसको अनदेखा कर दिया है और जो...
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7 comments:
सुन्दर भावों से सजी-सँवरी कविता के लिए बधाई।
jaise man ke bhav ho aas pas ki cheeze bhi waisi lagtee hai,aap udas hongi so sab kuch anjana lag raha hai...khoobsurat kavita...
bahut pyari kavita hai.....dr.amarjeet kaunke
बहुत सुन्दर मनोभाव हैं
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'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
फिर क्यों आज सच भी अफसाना सा लगता है
खुशिया आज भी बाहे फैलाए स्वागत कर रही है
फिर क्यों इक अनजाना सा भय खाए चला जा रहा है
या कुछ नही...ये डगर है उस तक पहुँचने की
शायद इसी लिए राह की हर सीडी परीक्षा बनती चली जा रही है...
सुंदर भावाभिव्यक्ति .....!!
अपनी बात को भाव को पूरी तरह संप्रेषित करती रचना. बधाई.
sundar shabdo me sazi hai aapki ye kavita .. meri badhai sweekar kariye is shaandar abhivyakti ke liye ...
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
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