वो सरिता जो बह निकली है
विशाल पर्वत का सीना चीर कर
कल कल करती, जगह जगह कौतुहल करती
नाचती, गाती, गिरती, संभलती,
नजाने क्या-क्या शरारतें करती
कहीं पूरे वेग से हल्ला मचाती हुई
राह में सब कुछ अपने साथ बहा कर ले जाती हुई
तो कहीं समुंद्र की गहराई की तरह एकदम शान्त
जन मानस की प्यास को बुझाती हुई
अपने अलग-अलग रूप को खुद स्वीकारती हुई
राह में आने वाली सारी बाधाओं स्वयं ही दूर करती हुई
बहती चली जा रही है
बिना किसी की परवाह किए
बिना किसी की राह देखे
बस अपनी धुन में
अपना गीत गुनगुनाते हुए
चलती चली जा रही है
बिना रुके, बिना डरे, बिना थके
अपने पी से मिलने
सदा सर्वदा के लिए
उसके साथ एक होने
क्योंकि मिलन का आनंद तो सर्वोपरी है
केवल तटिनी ही महसूस कर सकती है
मिलन के उस क्षण में जन्मे
आमोद को, तृप्ति को, संपूर्णता के भाव को
डॉ त्रिपत मेहता
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