कहीं गहरे अंतस में सुलग़ रहे
बवंडर में लुप्त हूँ मैं
जाने कैसी जवाबदेही के बेड़ियों में
कैदियों की तरह जकड़ी हुई हूँ मैं
जाने कैसा अविज्ञात बोझ अपने सीने पर
हाँकती हुई, बस मूक बैठी हूँ मैं
जाने क्यों अपनी अनगिनत अपेक्षाओं का नितप्रति
प्रमुदित हो, कण्ठ घोंट रही हूँ मैं
नजाने कब तक ऐसा ही चलेगा ये सिलसिला
अपने अन्तर्मन में उठ रही इच्छाओं , अभिलाषाओं , प्रेरणाओं को
जाने कब तक पंख न दे पाऊँगी मैं
जाने कब तक खुल के ना जी पाऊँगी मैं
जाने कब तक न उड़ पाऊँगी मैं
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं
ये बेड़ियाँ , या बंदिशें, ये क़ैद
मैंने स्वयं ही चुनी हों , खुद के लिए
शायद मैंने ही "मैं " को "मैं " से जकड़ रखा हो
और यदि ये सच है तो
इस बेनाम, बेमतलब, बन्धन से, इस भार से
मुझे स्वयं को मुक्त करना होगा
मुझे स्वयं ही अपने पंखों से उड़ना सीखना होगा
मुझे स्वयं ही "मैं" को "मैं" की जकड़न से आज़ाद करना होगा
मुझे स्वयं ही, अपनी ही बनाए कारागृह को
अग्नि के सुपुर्द करना होगा
खुद से वचबद्ध होना होगा
की अब न कोई बंधन, न बाधा , न बेड़िया मेरे लिए हैं
अब यदि कुछ है तो
नीले गगन में उड़ती हुई आज़ाद सिर्फ "मैं"
मेरा अस्तित्व और मेरा स्वाभिमान है
- डॉ त्रिपत मेहता
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